कविता----उसका इंतज़ार। (His wait)
रोज-रोज चली जाती है वो मुझको छोड़कर फिर मिलने के इंतज़ार मे
और मै बेक़रार हुआ रहता हूँ उससे मिलने की घड़ियां ख़त्म होने के इंतज़ार मे।
कभी दीवारों से तो कभी खुद से बातें करता रहता हूँ। गर दीवारें उकता
जाये मुझसे तो खुद को ख़ुदी का हमसफ़र बना लेता हूँ।
अब तो हद ही हो गई,मेरी तन्हाईओं ने भी ये कहकर मेरा साथ
छोड़ दिया की जाओ किसी और गुल पे गुलशन खिलाओ
यहाँ बहारो का समय अब नही रहा।
जाऊ तो जाऊ किधर हर और तो उसकी यादो का पहरा है।
मै तो वो पँछी हूँ जिसने झरोखा भी वही डाला जहाँ पकड़े
जानें का सबसे ज़्यादा ख़तरा था।
ये दुनियां इश्क़वाज़ प्यार के बिना कितनी नीरस लगती है।
पास होकर भी जब दिल का एक टुकड़ा दिल से दूर रहता है
तब जाकर कही इंतज़ार का असल मतलब इस दिल को समझ आता है।
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